कहल-सुनल -3

जब हम भोजपुरी में साहित्य रचीलाँ त
ध्वनियन , शब्दन आ
वाक्यांशन में शब्दक्रमन के
विशिष्टता आ उनके क्रमबद्ध रूप दिहला के विशिष्ट भंगिमा से पता चलेला कि भाषा हमरा खातिर केतना महत्त्वपूर्ण ह। भाव, बिम्ब आ लय
संश्लेषन के वाचिक आ
लिखित माध्यम से सम्प्रेषित कइला
में भाषा क हमरे खातिर अद्वितीयता
ह । सम्प्रेषनीयता से संस्कृति क निर्माण होला । हमरा शिल्प के सर्जन में किसान-शक्ति क रचनात्मकता ह
, सथहीं , परम्परा आ समकाल के नूतन सम्भावना से देखला क प्रत्ययो । किसान के अपन मातृभाषा बोलला आ
एगो बृहत्तर राष्ट्रीय या
महाद्वीपीय भूगोल से जुरल रहला में कौनों अंतर ना
देखाई देला । हमरे शिल्प के उपकरण
आज के चराचर के संदर्भित करेलन । प्राकृत
आ अपभ्रंश क ऐतिहासिक अवस्थिति के देखत
आज के भाषिक-साहित्यिक रूपाकृति में भाषा के विलोपन
के प्रक्रिया के समझे के होखी । ' जरिन की ओर
लवटला ' के बाति
कहीं अलगा लागू होत होखी । हम अपन लेखन के
जर से निकलले मानीलां । आखिर हमार साहित्य जरमूल से संपृक्त जन खातिर त ह ,
उन्हनीये
क भंगिमो ओम्मे होखी ।
सबसे पाहिले त ई कि हम केकरा खातिर लिखीलां ?
जेकरा खातिर हम
लिखीलां ओकरा खातिर भाषा क चुनाव
का अर्थ रखेला ? ई प्रश्न अत्यंत मूल्यवान ह कि अंग्रेजी , चाहे अन्य
प्रभुत्वकारी भाषा अइसन का ना अभिव्यक्त
क पावेलीं जवन
भोजपुरी करेले । वास्तव में अंग्रेजी
क कथ्य ऊ होइए ना सकेला जवन भोजपुरी के होखी ।
भोजपुरी आ अंग्रेजी क सांवेदनिक व सामाजिक पृष्ठभूमि अलग-अलग ह ।
भाषा में वास्तविक जनप्रेषण यथास्थितिवाद
के चुनौती ह । भोजपुरी भाषा में बोले वाले इहाँ
नगर-महानगर, हर कहीं हवें ,
हर तबका के ।
यानी कि ई जीवंत भाषा ह आ धरती से
जुरल । ई
महज शासन आ किताब के भाषा नइखे । हम उहे गाइलां , जवन जनता गावेले आ हमार
मन गावेला । हमार रचना क विषय-वस्तु आ
बिम्ब आत्म व जन संघर्ष से लिहल गइल हवें । आत्म व जन संघर्ष के बीच
एगो गहिर
सम्बंध ह । सांस्थानिक आ जन स्तर पर सांस्कृतिक विनिमय अत्यंत आवश्यक ह
।
कई बेर देखल गइल ह कि संस्कृति के
प्रतिमानन के रचना में
पश्चिमी हस्तक्षेप हद से जियादा बढ़ि
गइल हवे । पश्चिम क मूल्य हमनी
के मूल्य ना हो सकेलन बाकिर
सौन्दर्य के विभिन्न तंतुअन द्वारा
हमनी के उप्पर उन्हनी के आरोपित कइला
के सूक्ष्म प्रक्रिया जारी ह ।
हमनी के एह स्थिती में पहुंचे लागल हईं
जा कि साहित्य, जीवन आ सामाजिक
संघर्षन के बारे में एगो खास दृष्टिकोण-जइसन बनल जात हवे
जवन , हमनी के जरन से
ना आवेला । हमनी के साहित्य के व्याख्या
पश्चिमी धुरी पर ठाढ़ होके कइल जाला आ
दुनिया के ओइसने देखवला में लगि जाइल जाला
। ई कवनहूँ तरह उचित नइखे । पश्चिमी सिद्धांत के जानल एगो
अलग बाति बा आ साइत ऊ जरूरियो ह ।
होला का , कि जवन शिक्षा आ
संस्कृति के पश्चिमी आधार आ
अंग्रेजी के बल पर हमनी के समझला के कोशिश कइल जाला , ओम्में अपन जरि पूरी तरह आत्मसात
ना होले , एहसे जब कब्बों
बड़ सांस्कृतिक आ सामाजिक परिवर्तन के आवश्यकता होले
त , ऊ दृष्टिकोण काम क ना होला
। खाली सिद्धांत के बात अलग बा । किसान के
अँगोछा क
संस्कृति अंग्रेजी में ना लियावल
जा सकल जाला , अइसन हमार मानल
हवे । राष्ट्र द्वारा बोलल जाये वाली भाषन
में उपलब्ध संस्कृति आ इतिहास क समृद्ध राष्ट्रीय परम्परा क प्रयोग क
के शक्ति पावल जा सकल जाला । हमनी के वास्तविक साहित्य तब्बे विकसित हो सकेला , जब भारत के किसान
समुदाय क समृद्धि संस्कृति, भाषा आ इतिहास के
तह में अपन जरिन खातिर
प्रवेश करे। इहां किसान समुदाये अइसन हवे , जवन अधिक अधिक
संख्या में ह आ ओकर जाहिर रचनात्मक-सांस्कृतिक महत्त्व हवे । दुर्भाग्य से आज
ओकर आवाज़
बहुते कम सुनल जा रहल हवे आ ऊ
आत्महत्या कइला के विवश हवे । रचनाकर्म करत समय हमके अतीत क
समस्त ध्वनि, चीख, प्रेम, संघर्ष के स्वर सुनाई देला आ ई
स्वर अइसन भाषा में नहीं हो
सकेलन जेकर वास्तविक जरि भारत के धरती में न होखे या
जनसंघर्ष से जुरल ना होखे ।
प्रत्येक मनई के संस्कृति के सकारात्मक तत्वन के
मेराइये के मानवीय मूल्यन आ परम्परा क अइसन अधार तइयार हो सकेला जवन
वैश्विक प्रभाव छोड़ सके । आर्थिक
आ राजनैतिक मुक्ति, वास्तविक मुक्ति
क बुनियादी शर्त हवे त
वोह आर्थिक आ राजनैतिक मुक्ति क
यात्रा नपला के पैमाना हमनी के
संस्कृति, मूल्य आ
दृष्टिकोण हवें ।
साहित्य क एगो
गुन आत्मसंवर्धनो ह, जेम्मे आलोचनात्मक मानसिकतो सम्मलित हवे । हम भोजपुरी आ
हिन्दी के माध्यम से समग्र परिवेश के
आलोचनात्मक ढंग से आकलन आ
मूल्यांकन क पाइलां । सथहीं एह
प्रक्रिया में उपलब्ध उपकरनन के सहायता से दूसर संस्कृतियन आ पुरहर दुनिया क आकलन आ मूल्यांकनो । हमनी के एगो
स्वतंत्र देश में रहल जाला ।
कवनहूँ स्वतंत्र देश के अपन संस्कृति के अध्ययन से जुरल अत्यंत महत्त्वपूर्ण निर्णय क काम दुसरा
देशन के बदले स्वयं करे के चाहीं ।
राष्ट्रीय संस्कृति के पश्चिमी-अभिमुखी
निर्णयन के गुलाम बनावल
देश के लोगन के प्रति विश्वासघात ह
। ओम्मे हमनी के संघर्ष क सौन्दर्यबोध ना होखी आ
मनुष्य क रचनात्मकता के शक्ति क
निरादरो । इतिहास के हमनी के
अनुभवन के अभिव्यक्ति हमनी के अपन
साहित्य में इहाँ के माटी के
सुगंधे से सम्भव ह ।
हमरा मन के रचना में विविध भाषा-साहित्य क
संघनन ह । ओम्मे अपन धरती ह । भाषा
क सहजता हमरा में सम्पोषित होले ना कि कट्टरता ।
कट्टरता हिंसाचारी आ लोकविरुद्ध
होले । हमार साहित्य संवादधर्मी आ प्रीतिकर्मी ह । मातृभाषा में संस्कृति के सर्जनात्मकता क सहजता सम्भव हवे ।
......................
लेखक- परिचय दास
लेखक का ईमेल - parichaydass@rediffmail.com